Wednesday, July 27, 2016

तानाशाही की ओर बढ़ता भारत

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कुछ आपिए चिल्ला रहे हैं कि राजस्थान DCW के अधिकारी बलात्कार के आरोपी के साथ सेलफ़ी ले रहे हैं, फिर भी कोई FIR नहीं, जबकि स्वाती मालीवाल के विरुद्ध FIR है। 

पता नहीं ये आपिए कब समझेंगे कि संविधान और कानून मात्र उन लोगों के लिए होता है जिन से भ्रष्ट सरकार को ख़तरा हो।



व्यापम वाले मंत्री पद पर अब तक बिराजे हैं, पनामा वाले चैन से सो रहे हैं, एक बलातकारी के चरित्रहीनता के कारण "आसा" के साथ "राम" लिखना भी अनुचित लगता है, और गजब तो यह है कि अब तक "सवामी" जैसे पवित्र शब्द को उसके नाम से जोड़ कर अपवित्र किया जारहा है। और आप मात्र एक सेलफ़ी के लिए FIR की अपेक्षा करते हैं। पगला गए हैं का?!

सच तो यह है कि यह सब को पता है। फिर भी नहीं मानेंगे। क्यूंकि अब राजनीति ही ऐसी है।

इस राजनीति को जो अब तक लोकशाही समझते हैं वह अब तक लॉलीपॉप खाने वाले दौर में हैं। अभी इनका अंगूठा चूसने वाला समय समाप्त नहीं हुआ है। 

आप मानें या ना मानें अब भारत तानाशाह बन चुका है। जहां सत्तारूड़ दल का प्रमुख ही सब कुछ होता है। पोलिस, सेना, और न्यायालय तक इनके साथ दिखाई देते हैं। भला ऐसी स्थिति में मीडिया कैसे इस दल के विरुद्ध हो। उसे भी तो अपनी रोज़ी रोटी की चिंता है। 
यह सब मैं यूंही नहीं कह रहा हूं। आप भले ही मुझे भाजपा विरोधी होने का दोषी मानें, लेकिन तथ्य तो यही बता रहे हैं। 

मैं उदाहरण स्वरूप कुछ घटनाओं के बारे में बताऊंगा। फिर यातो आप मुझे दलील देकर मना लीजिए, या फिर आप भी मान लीजिए। वरना हमें मानना पड़ेगा कि आप भी एक अंधभक्त हैं। 

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के एक नेता को मात्र इस लिए गिरफ़तार कर लिया कि उन्होंने अपने दसतावेज़ में अपने विश्वविद्यालय का पूर्ण नाम नहीं लिखा था। लेकिन केंद्रीय मंत्री स्मृति ज़ुबीन ईरानी समेत अन्य बहुत से नेताओं की डिगरी ही फरज़ी बताई गई है। लेकिन अब तक वह अपने अपने पदों पर बिराजमान हैं! 

दिल्ली के ही एक मंत्री पर भ्रष्टाचार का मात्र आरोप लगा, बस वावेला मच गया। उन्हें मंत्री पद से निकलना पड़ा। लेकिन व्यापम जैसे महाघोटाले के आरोपी अब तक मंत्री पद पर चिपके बैठे हैं।

ज़ाकिर नाइक को एक झूटी ख़बर के आधार पर देशद्रोही तक कह डाला। और कुछ तथाकथित देशभक्त सड़क पर उतर कर देशभक्ति का प्रमाण देने लगे, लेकिन मुसलिम मुक्त भारत का नारा देने वाली "महान, सुशील, शालीन ओर भद्र" साधवी जी अब तक सच्ची देशभक्त बनी बैठी हैं। देशभक्ति का हाल यह है कि एक निर्दोष व्यक्ति के सिर काट कर लाने पर इसने 50 लाख की राशि घोषित किया है। लेकिन मीडिया वालों की मजाल नहीं कि उस पर कोई सठीक ख़बर बनाएं। 

यह तो मात्र उदाहरण है, वरना पता नहीं कितने भोगी हैं जो योगी के नाम पर कलंक हैं, कितने तथाकथित समाजसेवक हैं जो समाज को लूट रहे हैं। कितने पंडित, मुल्ला और अन्य धर्मगुरु हैं जो धर्म के नाम पर अधर्म को बढ़ावा दे रहे हैं।
और कहीं न कहीं से यह सब इस तानाशाही से जुड़े हुए हैं।

ज्यादा बोलना खतरे से खाली नहीं। इस कलम को अभी बहुत कुछ लिखना है। इस लिए इसे सुरक्षित रखना भी अवश्य है। आप समझदार हैं। खुदै समझ जाएंगे। 
😜 


ज़फ़र शेरशाबादी



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Saturday, July 23, 2016

میں حمد کیا بیاں کروں گناہ گار ہوں بہت

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تو   خالقِ  حیات   ہے   بَلند  تیری  ذات  ہے
ترے  وجود  پر  گواہ   ساری   کائنا ت   ہے
                            میں حمد کیا بیاں کروں گناہ گار ہوں بہت

رؤوف  تو رحیم   تو،  غفور    تو   حلیم تو 
ہے صاحبِ جلال   تو،  حکیم   تو  علیم  تو
                         سعادتوں کا  نور  دے   سیاہ  کار  ہوں  بہت

تری  قضا  پہ  منحصر   امورِ  کا ئنا ت  ہیں
ہماری کیا بساط  ہے کہ  ہم تو بے ثبات  ہیں
                       تو ہی عزیز کر مجھے ذلیل و خوار ہوں بہت

تری عطا ہے زندگی تجھی سے کتنا دور ہوں
ملی ہیں تیری نعمتیں تومیں نشےسےچورہوں
                    گناہ میرے بخش دے میں اشک بار ہوں بہت

کتا بِ زند گی مر ی   گنا ہ   کی  کتا ب  ہے
جو نیکی ظاہرا بهی ہے وہ خواب ہے سراب ہے
                  تو میرے دل کو صاف کر میں داغ دارہوں بہت

مری   ہے  ایک  التجا  الہی  تو   قبول  کر
ظفر  کو  باغ خلد میں   مرافقِ  رسول   کر
                  قبولیت  کا شرف  دے  کہ خاک سار  ہوں بہت



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Wednesday, July 13, 2016

देशभक्ति का बुख़ार

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किसी भी देश की सेना के जवान ही देश के सच्चे रक्षक होते हैं, इसी लिए यह मानना होगा कि सेना पर हमला देश पर हमला करने के समान है। यदि कोई एेसा करता है तो उसे देश द्रोही घोषित करने की आवश्यकता ही नहीं है। ना ही किसी न्यायालय के फ़रमान की आवश्यकता। वह निःसंकोच व निःसंदेह देश का ग़द्दार कहलाएगा।

लेकिन यह सच है कि श्रद्धा के साथ साथ यह भी मानना होगा कि देश के इन रक्षकों के बीच कुछ एेसे तत्व अवश्य हैं जो इस पवित्र स्थान पर कालिख पोतने का काम करते हैं। अौर कोई माने या ना माने एेसे तत्व हर जगह कुछ ना कुछ मात्रा में अवश्य पाए जाते हैं।

ना तो मैं कन्हैया का सेना के जवानों पर दिया गया बयान सुना हूं अौर ना ही कन्हैया का अंधभक्त हूं! पर यह अवश्य कहूंगा कि इस कन्हैया के बहाने बहुत सारे लोग अपना भाग्य जगाने में जुट गए हैं। हर कोई इस विषय को कैश करना चाहता है।

एक देश भक्त वकील निकला, जिस ने न्याय के मंदिर पर ही कानून को हाथ में लेकर देश के न्याय प्रणाली पर ही प्रश्न चिन्ह लगाने की कोशिश करने लगा। फिर देश के अलग अलग क्षेत्रों से नए नए देशभक्तों की आंख खुली, मानो जैसे सपना सच करने का स्वर्ण अवसर आगया हो। बस अब क्या था कन्हैया नामक उस देशद्रोही की ईंट से ईंट बजाने के लिए हर प्रकार के जतन होने लगे। कोई डिबेट के दंगल में चुनौती देकर अपनी देशभक्ति का नमूना दिखा रहा है, तो कोई उसकी ज़ुबान काटने पर इनाम घोषित करके अपने देशभक्ति का कर्तव्य निभा रहा है। ग़ज़ब तो ये ये है कि उसकी गरदन काटने पर भी इनाम की घोषणा करने वाले सच्चे देशभक्त बन गए।

मुझे यह समझ में नहीं आता है कि जब देश का चालक अौर प्रधान सेवक सेना को नीचा दिखा रहा था तो यह देशभक्त कि गुफा में छिपे थे? राष्ट्रपिता के क़ातिल गद्दार घोडसे के पुजारी खुले आम बापू का, देश के ध्वज का अौर राष्ट्रगान का अपमान कर रहे थे तो यह देश भक्ती क्या मर गई थी?

बस अब क्या कहूं यहां पर सच बोल कर ज़ुबान नहीं कटवानी है। जियो अंधभक्तो, अोहह सॉरी देशभक्तो।

जय हिंद।
ज़फ़र शेरशाबादी
कटिहार



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ہائے یہ میڈیا کی دو رخی

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واہ رے میڈیا! 
بہت سنتے تھے کہ کسی جھوٹ کو سو بار بولا جائے تو وہ سچ ہوجاتا ہے۔ اب اس کا جیتا جاگتا نمونہ بھی دیکھ لیا۔ 
ڈاکٹر ذاکر نائیک کے حالیہ مسئلے پر اس قدر جھوٹ کا کاروبار کیا گیا کہ کچھ سیکیولر سوچ رکھنے والے معتدل افراد بھی اس کی زد میں آگئے۔ اور انہیں لگنے لگا کہ واقعی یہ سچ ہے۔

Image Source: www.unique-design.net


میں اسے کیا کہوں؟ میڈیا کا دوغلا پن یا اس کا حقیقی چہرہ؟ 

میں وضاحت کردوں کہ آج بھی ذرائع ابلاغ میں اچھے اور سلجھے ہوئے صاف کردار کے لوگ موجود ہیں۔ جنہیں انگلی پہ گنا جاسکتا ہے۔ جو اپنے فرض منصبی کو سمجھتے ہیں۔ اور بہت کوشش بھی کرتے ہیں کہ وہ اپنے فرائض کو سہی ڈھنگ سے نبھا سکیں۔ اور کچھ ایسے صحافی آج بھی ہیں جن کی ایمانداری کی مثال دی جاسکتی ہے۔ وہیں ان میں بہت سے ایسے صحافی بھی ہیں جنہیں اپنی ایمان داری کی بھاری قیمت چکانی پڑتی ہے۔ یا تو انہیں ملازمت چھوڑنی پڑتی ہے، یا پھر گم نامی کی زندگی بسر کرنی ہوتی ہے۔
 ان تمام ایمان دار صحافیوں اور ذرائع ابلاغ سے جڑی شخصیتوں کو میرا سلام! 

 مجھے تو ان صحافیوں سے شکایت ہے جنہوں نے چند حقیر سکوں کے عوض اپنے ایمان اور فریضے کا سودا کرلیا ہے۔ جنہوں چند ٹکوں کے بدلے سچ کو بیچ کر جھوٹ خرید لیا ہے۔ جی ہاں جن کی حریص طبیعت نے حرص میں پڑ کر اپنا قلم اور اپنی آزاد زبان تک کو بازار کی زینت بنا لیا ہے۔

پیسوں کے لئے ایسے لوگ کچھ بھی کرسکتے ہیں۔ وہ لمحوں میں ایک معصوم شخص کو سب سے بڑا مجرم بنا سکتے ہیں۔ اور برادران وطن میں نفرت کی ایسی دیوار کھڑی کرسکتے ہیں کہ جسے گرانا ناممکن سا لگتا ہے۔ جی ہاں یہ چاہیں تو فساد بھی برپا کرسکتے ہیں۔

یہ سب پیسوں کا ہی کھیل ہے کہ کل کو جو سیاسی جماعت اقتدار پر تھی اسی کے گن گائے جاتے تھے۔ اور محاذ مخالف کا جینا تک دشوار ہوسکتا تھا۔ آج وہی محاذ جب برسر اقتدار ہے تو اس کے سر پر لگے ہزاروں معصوموں کا خون بھی اب معاف ہے۔ اب اس کی تعریفوں کے پل باندھے جارہے ہیں۔ کل کا مجرم آج میسحا بن چکا ہے۔ 

بکے ہوئے میڈیا کا دوغلا پن اس وقت مزید صاف ہوگیا جب میں نے دیکھا کہ ایک جھوٹی خبر کو بنیاد بنا کر امن کے داعی و نقیب کو ہی امن کا دشمن اور دہشت گرد تک بنا دیا۔ اور اب جب حقیقت عیاں ہوگئی تو جانوروں کی طرح شور مچانے والے کچھ بکے ہوئے صحافی اس شخص کی براءت پر خاموش ہیں۔ یہ میڈیا ہی ہے جو بھولی بھالی عورتوں کو جھانسہ دے کر ان سے بدکاریاں کرنے والے کو آج تک ولی کا درجہ دیتی ہے۔ اور پیسہ ملنے پر ایک معمولی سے واقعے کو دہشت گردی سے جوڑ سکتی ہے۔ وہیں پیسوں کا یہ ننگا ناچ بھی سبھی دیکھ چکے ہیں کہیں بلاسٹ ہوتا ہے۔ وہاں ٹوپی، مسواک، اور داڑھی کو دیکھ کر بلاتامل اسے ایک مذہب سے جوڑ دیا جاتا ہے۔ اور اتنا واویلا مچتا ہے کہ اس مذہب کے ماننے والوں کا دائرہ تنگ ہونے لگتا ہے۔ لیکن جب پتہ چلتا ہے کہ یہ حملہ آور کوئی محمد، عمر یا عبد اللہ نہیں بلکہ سادھو، پروہت اور سادھوی ہیں تو اس بدکردار میڈیا کو اتنی بھی ضرورت محسوس نہیں ہوتی ہے کہ اہل وطن تک ان کا جو غلط پیغام گیا ہے اس کی تردید کو بھی نمایاں کیا جائے۔ اب جب پیسے ہی اسی بات کے ملتے ہیں تو وہ ایسا کیوں کریں گے۔ اگر ایسا کردیا تو یہاں بین المذاہب محبتیں بڑھیں گی۔ لوگ ایک دوسرے کے قریب آئیں گے۔ اور اگر ایسا ہوا تو ان کے آقاؤں کی دکانیں بند ہو جائیں گی۔

میں کسی کا نام نہیں لے سکتا۔ آپ خود سمجھ دار ہیں۔ سمجھا کریں نا!







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हाय रे ये दोगलापन

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वाह रे मीडिया! 
बहुत सुनते थे कि एक झूट को सौ बार बोलो तो वह सच होजाता है। परंतु इसका जीता जागता उदाहरण भी देख लिया। 
ज़ाकिर नाइक के विषय में इतना झूट बोला गया कि अच्छे सेक्यूलर सोच रखने वाले कुछ लोग भी बहक गए।

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नैं इसे क्या कहूं? मीडिया का दोग़लापन या फिर उसका असली चेहरा? 
मैं एक बात साफ कर दूं कि आज भी मीडिया में अच्छे लोग हैं।  जो अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाना चाहते हैं। और कुछ लोग निभा भी रहे हैं। लेकिन कुछ इमानदार पत्रकार ऐसे भी हैं कि जिन की ईमानदारी की मिसालें दी जा सकती हैं। लेकिन बहुत ईमानदार ऐसे भी हैं जिन्हें उनकी ईमानदारी की भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है। या तो उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है या फिर गुमनाम होकर जीवन यापन करना पड़ता है। यहां मैं तमाम उन पत्रकारों और मीडिया कर्मियों को सलाम करता हूं। 

मुझे तो उन पत्रकारों से आपत्ति है जिन्होंने चंद तुच्छ कौड़ियों के बदले अबना धर्म और कर्तव्य को बेच डाला है। जिन्होंने कुछ खोटे सिक्कों के बदले सत्य को बेच कर केवल झूट खरीदा है। जी हां जिन्होंने पैसों की लालच में अपना क़लम और अपनी ज़बान तक का सौदा कर लिया है। 

पैसों के लिए वह देश वासियों को तोड़ कर आपस में शत्रुता भी पैदा कर देते हैं। यह सब पैसे का खेल है साहेब। कल जो मीडिया सत्तारूड़ दल के गन गाती थी। और विपक्षी दल की धज्जियां बिखेर देती थी, आज वही मीडिया बदल चुकी है। कल का गुंडा आज मसीहा बन चुका है। और जो मसीहा था आज मीडिया के करम से वही मुजरिम बन गया है। 

बिके हुए मीडिया का दोगला पन उस समय और साफ होगया जब मैं ने देखा कि एक झूटी खबर के आधार पर अमन के लिए संघर्ष करने वाले एक व्यक्ति को आतंकवादी और देशद्रोही तक कह डाला। पर वही मीडिया मासूम मां बहनों को धोका देकर उनके साथ दुष्कर्म करने वाले को और देशद्रोह के जुर्म में जेलों बंद लोगों आज भी सम्मान से याद करता है।

पैसे मिलने पर एक छोटी सी घटना को आतंक से जोड़ सकते हैं। वहीं पैसे का यह खेल भी देखें कि बम ब्लास्ट में प्रमाण होने के बाद भी उनको हाइलाइट नहीं किया जाता है। 
घटनास्थल पर टोपी, डाढ़ी, मिसवाक आदि मिल जाए तो किसी विशेष धर्म की धज्जियां बिखरने में ज़रा भी समय नही लगता। परंतु जब पता चल भी जाता है कि यह वसतुएं नक़ली थीं, और ये कोइ मुहम्मद, उमर या अब्दुल्ला नही बल्कि साधू, पुरोहित और साधवी हैं तो किसी भी मीडिया को यह उचित नहीं लगता कि जो गलत संदेश देशवासियों तक गया है उस का खण्डन करें।
अब जब पैसा ही इसी बात का मिलता है तो क्यों करेंगे?! और एसा होगया तो फिर हिंदू-मुसलिम तो एक दूसरे के क़रीब आजाएंगे। और यदि यह होगया तो फिर इन को पैसा देने वाले खुदाओं की दुकान बंद हो जाएगी। 

मैं किसी का नाम नहीं ले सकता, आप खुद समझदार हैं, समझ जाइए।


✒ ज़फ़र शेरशाहाबादी



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Tuesday, July 12, 2016

ہے یہ ہندوستاں میرا

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مرے  اجداد کا  فدیہ  ہے یہ ہندوستاں میرا
مجھی سے لے رہا جزیہ ہے یہ ہندوستاں میرا

ذرا تاریخ پڑھنے کی کبھی زحمت بھی کر لینا
مرے  ہی  خون کا  ثمرہ ہے یہ ہندوستاں میرا

لہو دوں گا میں اپنا جب ضرورت آن پہنچے گی
لُٹا دوں جان بھی، جذبہ  ہے یہ ہندوستاں میرا

ذرا  الزام   لگ  جائے   گر فتا ر ی   یقینی   ہے
مگر  مجرم  ہوئے  شستہ، ہے  یہ  ہندوستاں میرا

خلل کوئی بھی مت ڈالے مرے ملکی مسائل میں
کہ اٹھے پھر کوئی فتنہ ہے یہ ہندوستاں میرا

یہ اک سونے کی چڑیا تھی یہ محور تھا زمانے کا
ہوئے  حالات  اب خستہ،  ہے  یہ ہندوستاں میرا

مرے  دامن  پہ ہلکا داغ  لگ  جائے  تو  آفت  ہے
 ترے ظلموں سے شرمندہ ہے یہ ہندوستاں میرا

میسر ہوں گے اچھے دن بڑی امید تھی سب کو
مگر  یہ تو  ہوا جملہ،  ہے یہ  ہندوستاں  میرا

جو قاتل تھا ہزاروں کا ظفؔر اب وہ  مسیحا ہے
تماشہ یہ  ہوا طرفہ،  ہے یہ ہندوستاں  میرا



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Monday, July 11, 2016

کہیں یہ یوپی الیکشن کی تیاری تو نہیں!

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گزشتہ کئی روز سے ملک کی صحافت میں بس ایک ہی شخص موضوع گفتگو بنا ہوا ہے۔ اور وہ ہیں مشہور اسلامی اسکالر ڈاکٹر ذاکر نائیک حفظہ اللہ۔ اس مسئلے میں مسلمانان ہند مختلف طبقوں میں نظر آئے۔ بعض لوگ بہت کھل کر ان کی حمایت کر رہے ہیں۔ وہیں بعض موقع پرست ان کی مخالفت پر اترے ہوئے ہیں۔ اور بعض لوگ خاموشی میں ہی عافیت سمجھ رہے ہیں۔ حال آں کہ بہت سارے غیر مسلمین ڈاکٹر صاحب کے اس میڈیا ٹرائل سے نالاں ہیں۔ اور ان پر لگائے گئے الزامات کو ایک سیاسی پروپیگنڈا تسلیم کرتے ہوئے انہیں یکسر مسترد کر رہے ہیں۔



ڈاکٹر ذاکر نائیک کے خلاف یہ بے ہودہ محاذ آرائی دراصل یوپی الیکشن کو بھنانے کے لئے ہے۔ بھاجپا اور اس کے حواریوں کا ایک بڑا مقصد ہے کہ وہ کسی طرح یوپی میں مسلمانوں کو تقسیم کردیں۔ 
حال ہی میں گجرات کے سابق ایم ایل اے یتِن اوزا (جو کہ اب عام آدمی پارٹی میں شامل ہوچکے ہیں) کے بیان نے اس اندیشے کو مزید تقویت دی ہے۔
ان کے بیان کے مطابق بی جے پی کے بدنام زمانہ رہنما امیت شاہ (جن پر گجرات کے مسلم کش فساد انجام دینے کا الزام ہے) اور حیدرآباد کے شعلہ بیان سیاست دان اسد الدین اویسی کے درمیان ایک خفیہ مفاہمت ہوئی ہے۔ جس کے تحت اویسی صاحب کو بہار انتخابات میں کودنے کی پیش کش کی گئی تھی۔ تاکہ وہاں کے مسلم رائے دہندگان مختلف حصوں میں بٹ جائیں اور بی جے پی کو جیتنے کا موقع مل جائے۔ بہر حال اس معاملے میں کئی بار اسی قسم کے بیانات سامنے آئے۔ اور کچھ شواہد بھی اسی کی وکالت میں نظر آئے۔ لیکن یہ معاملہ اب بھی تحقیق کا طالب ہے۔ اور یہ بھی طے ہے کہ ایسے خفیہ معاملات کی تحقیق تقریبا ناممکن ہی ہوتی ہے۔

یوپی میں اکثر لوگ ڈاکٹر ذاکر نائیک کے مخالف ہیں! خود بعض اسلامی جماعتیں ان کی مخالف ہیں۔ جیسا کہ شیعہ اور بریلویہ نے عملا اس کا نمونہ بھی پیش کردیا ہے ۔ اب اس قدر بہترین موقع کو بھلا بی جے پی ہاتھ سے کیسے نکلنے دیتی۔ بس آنا فانا بنگلہ دیشی انگریزی اخبار کے حوالے سے ایک بے بنیاد بات کو لے کر میڈیا کو سونپ دیا گیا۔ اور بھاجپا نے ایک ہی تیر سے بریلوی، شیعہ اور ھندؤوں بلکہ تمام غیرمسلموں کو اپنی طرف لانے کی کوشش کی ہے۔

جب کہ سوشل میڈیا میں یہ خبر بھی گردش کررہی ہے کہ اس موقع کو کسی بھی قیمت پر نہ گنوانا پڑے اس لئے شدت پسند ہندو تنظیم RSS نے تقریبا 200 صحافیوں کو اس معاملے پر مامور کیا ہے۔ جنہیں یہ بتایا گیا ہے کہ جس طرح سے ممکن ہو ذاکر نائیک کو مجروح کیا جائے۔

اور یہ بات بہت حد تک معقول بھی لگتی ہے۔ جس کا جیتا جاگتا ثبوت موجود ہے۔ حال آں کہ ابھی تک ذاکر نائیک کے خلاف نہ تو تفتیش مکمل ہوئی ہے اور نہ ہی کوئی الزام ثابت ہوا ہے۔ اس کے باوجود کچھ صحافی اپنی صحافت کی سوداگری کا ثبوت دے کر انہیں دہشت گرد تک بتا رہے ہیں۔ وہیں اخلاق وکردار تک کو بالائے طاق رکھ کر کچھ صحافی ان کا نام تک بھی درست انداز سے نہیں لے رہے ہیں۔ جب کہ بہت سارے ہندو شدت پسند مجرموں کا جرم ثابت بھی ہوچکا ہے لیکن یہ ان دہشت گردوں کے لئے نرم گوشہ رکھتے ہیں۔

خیر ایسے ماحول میں ہم تمام ہندوستانیوں کو بہت ہی سوجھ بوجھ سے کام لینا ہوگا۔ کہیں ایسا نہ ہو کہ "اچھے دن" کے نام پر جو دھوکہ ہوا ہے اب ‌وہی دھوکہ "ذاکر نائیک" کے نام سے الگ انداز سے یوپی والوں کو دیا جائے!




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Friday, July 8, 2016

تمہارے سنگ اب مجھ کو بھی پڑھنے عید جانا ہے

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وہ اک غم گین سی شب تھی، غموں سے میں بھی بوجھل تھا
غموں کے بیچ مجھ کو خواہشوں نے آکے یوں گھیرا
بڑی چاہت ہوئی کہ آج کوئی اپنا آ جائے
دو میٹھے بول بولے مجھ کو سینے سے لگا جائے
مجھے کچھ آسرا دے اور مری ڈھارس بندھا جائے
مری ہمت جو پژمردہ ہے اس کو وہ بڑھا جائے
اسی امید پر اس رات کچھ کھویا ہوا تھا میں
خوشی کی رات تھی لیکن بہت رویا ہوا تھا میں
افق پر تھی سیاہی پر نگاہیں اس پہ اٹکی تھیں
کہ جیسے کوئی تارہ ٹوٹ کر دامن میں آئے گا
کوئی تو آہی جائے گا مجھے اپنا بنائے گا
کہ کل کو عید جب ہوگی وہ اپنے گھر بلائے گا
سویوں سے بھرا شیریں سا اک پیالہ بھی لائے گا
کہے گا عید کی خوشیاں تجھے یارا مبارک ہوں
تری امید بر آئے تجھے خوشیاں میسر ہوں
نہ جانے کب اسی چاہت میں میری آنکھ بھر آئی
یہ آنکھیں بھی بڑی کم ظرف تھی فورا امڑ آئی
انہی بھیگی ہوئی آنکھوں میں پھر کب نیند بھی آئی
پھر اک ننھی پری نے خواب میں آکر مجھے چھیڑا
بڑی معصوم سی تھی وہ بہت ہی شوخ و چنچل تھی
سراپا سے تو وہ بالکل مری بیٹی سی لگتی تھی
مجھے آکر جھنجھوڑا اور پھر گویا ہوئی مجھ سے
مرے بابا یہ آنسو کیوں ہماری عید کل ہے نا
مجھے عیدی نہیں دینا مگر تم پاس آ جانا
سہیلی باپ کی انگلی پکڑ کر جب نکلتی ہے
تمہارے بن ہماری عید بھی ماتم سی لگتی ہے
میں اک مسکین سی کب تک اسی اک آس میں بیٹھی
کہ بابا آج تو میری خوشی کی لاج رکھ لیں گے
مری خاطر کم از کم عید کو گھر آہی جائیں گے
مجھے ماں نے سلایا اور خود رونے لگی وہ بھی
چھپا کر اپنا منہ پلو میں غم دھونے لگی وہ بھی
مجھے پھر خواب کی دنیا میں اک کھنڈر نظر آیا
اسی ویران بستی میں بہت مغموم سا کوئی
سراپا غم تھا اس کی آنکھ بھی اشکوں میں ڈوبی تھی
جھجھک کر جو قریب آئی تو دیکھا آپ ہیں بابا
مجھے جو چاہئے تھا وہ مجھے اب مل چکا بابا
یہ عیدیں تو خوشی کے دن ہیں کوئی ان میں روتا ہے؟
چلو اب آنکھ پوچھو اور ذرا سا مسکرا دو نا
چلو اٹھو نا بابا دیر ہوجائے گی دیکھو نا
تمہارے سنگ اب مجھ کو بھی پڑھنے عید جانا ہے

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Saturday, July 2, 2016

میں ہوں شیر شہ بادی

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بہت اعلی نسب میرا ہے میں ہوں شیر شہ بادی
کہ شجرہ شاہ سوری کا ہے میں ہوں شیر شہ بادی

بہت اندر تلک دلدل میں میری قوم جا پہنچی
ثریا اس کو لے جانا ہے میں ہوں شیر شہ بادی

 ہر اک سو اب اندھیرا گرچہ میرا راستہ روکے
اندھیروں سے مجھے ڈر کیا ہے میں ہوں شیر شہ بادی

ہمیں تھے قوم کے والی ہمیں معمار کہلائے
مرے اجداد کا فدیہ ہے میں ہوں شیر شہ بادی

نرالے طور ہیں اس قوم کے انداز لاثانی
الگ انداز جینے کا ہے میں ہوں شیر شہ بادی

انہیں بس روشنی کی اک رمق جھنجھوڑ سکتی ہے
مجھے غفلت سے اب اٹھنا ہے میں ہوں شیر شہ بادی

حلاوت اپنی بولی کی وہی بس جانتا ہوگا
کوئی غربت میں جو بولا ہے میں ہوں شیر شہ بادی

جو اپنی قوم سے بدظن ہیں وہ خود سے کبھی پوچھیں
کہ ان کا دل یہی کہتا ہے میں ہوں شیر شہ بادی

ظفر اٹھو کمر کس لو کہیں نا دیر ہو جائے
مجھے تاریخ اب لکھنا ہے میں ہوں شیر شہ بادی



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کیوں آج ابابیل کا لشکر نہیں آیا؟

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سینے میں مرے کوئی بھی خنجر نہیں آیا
مرنے کا ابھی وقت مقرر نہیں آیا

کچھ تیر مرے اپنوں کے آئے تھے مری سمت
صد شکر نشانے پہ مرا سر نہیں آیا

محفل میں تو آیا تھا مگر خود میں مگن تھا
یوں مجھ کو لگا جیسے وہ آ کر نہیں آیا

میں نے ہی سجائی تھی بڑے شوق سے محفل
میری ہی طرف ایک بھی  ساغر نہیں آیا

پلکوں پہ سجائے تھے بہت خواب سہانے
تعبیر میں تو کچھ بھی میسر نہیں آیا

سر کٹ گیا لیکن یہ خوشی دل میں ہے میرے
ایمان  سلامت  ہے  گنوا کر  نہیں  آیا

اعمال میں کچھ اپنے ہی لگتا ہے کمی ہے
کیوں آج ابابیل سا لشکر نہیں آیا؟

فرصت ہے ابھی نیکیاں چاہو تو کما لو
دنیا سے گیا جو بھی پلٹ کر نہیں آیا

غربت میں ظؔفر عید بھی ماتم سی لگے ہے
خوشیوں کا کوئی پل بھی میسر نہیں آیا

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